वो इस्लाम की पहली आलिमा, पहली फ़क़ीहा, पहली मुज्तहिदा, पहली मुफ़्फ़सिरा और पहली मुहद्दिसा! मुदब्बिरा मुफ़क्किरा.वो सच्चाइयों के आँगन में पैदा हुईं!वफ़ा-घर में उसकी तरबीयत हुईं.
अपने ज़माने के तमाम उलूम, अदब, नर्सिंग वगैरह उन्हें पढ़ाए गए.
वो जब बात करतीं तो लगता जैसे कोई अल्लामा फह्हामा इल्म के साथ साथ उम्दा और शीरीं गुफ़्तगू का दरिया बहा रही हो.
हुज़ूर की निगाह ए जौहर शनास ने इस बला की ज़हीन लड़की के इल्म ओ हुनर का पहचान लिया और अपनी ज़ौजियत में ले लिया.
वो सदाक़त के घर से नुबुव्वत के घर आ गईं यानी उनकी अज़मत और शान दो बाला हो गई.
वो सारी ज़िंदगी हुज़ूर से दीन सीख कर ख़्वातीन में दीन की तबलीग़ करती रही. इस तरह उसके पास दीन के इल्म का बे बहा खज़ाना हो गया जो शायद इस्लाम की तारीख़ में किसी और के हिस्से में आया हो.
हुज़ूर से मोहब्बत का ये आलम था कि आखरी वक़्त में हुज़ूर का सर मुबारक उनकी गोद में था. इस गोद पर सारी कायनात और सारी जन्नतें क़ुरबान.
और हुज़ूर उन्हीं के कमरे में आज तक आराम फ़रमां हैं.
हुज़ूर के बाद दीनी मामलात का शोबा उन्हीं के हिस्से में आया और तमाम आम ओ ख़ास मुस्लमान का मरजा ओ मावा करार पाईं.
लोग उन से दीनी मसाइल मालूम करने आते और वो बड़ी ज़हानत से उन्हें सुलझा देतीं.
ख़ुलफ़ा ए राशिदीन उसकी बारगाह में सलाम भेजते.सदाक़त उनकी तबियत और मिजाज़ में इस तरह बस गई थी कि सिद्दिक़ा उनके नाम ए नामी का हिस्सा बन गया.
पाकदामन ऐसी कि क़ुरआन गवाह है. फिक्र में वो पाकीज़गी कि तैयबा और ताहिरा के खिताब पाए.
क़ुरआन की बारगाह से वो शान आता हुई कि मोमिनों की मां के मनसब पर फ़ाइज़ हुईं.
आक़ा, सुल्तान ए दो जहां हैं तो वो मलिका ए दो जहां.
जिन से आक़ा राज़ी, अल्लाह राज़ी.
वो हैं उम्मुल मोमिनीन आईशा सिद्दिक़ा , इमामुल अम्बिया की जान ए ज़िंदगी.